निस्तब्धता
आज मैं हताश सा खड़ा हूं चौखट पर,
सोचा ना था कभी यूं जेल सा लगने लगेगा अपना ही घर।
अब तो माँ के हाथ की रोटी भी नही भाती है,
हॉस्टल की, रात दो बजे वाली मैगी की याद सताती है।
ना ही आपदा का और ना ही ये डर है किसी परमाणु का,
ये तो खौफ़ है एक छोटे से विषाणु का।
एक तरफ हम दोस्तो से मिलने के लिये तरस रहे हैं,
दूसरी ही ओर माँ के तानो के बादल अविरल बरस रहे हैं।
यह सब सोचते सोचते ना जाने कब मेरी आंख लग गयी,
सपनो की सुनहरी दुनिया ने मेरे लिये अपने दरवाज़े खोले ही थे कि तभी मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बज गयी।
बाहर निकला तो देखा, एक बुज़ुर्ग व्यक्ति खडे थे,
ना जाने कितने दिनों से भूख और गर्मी से वे लड़े थे।
पेट भरने पर उन्होनें कहा कि आपने बचा ली मेरी जान,
और जाते जाते वे मुझे एहसास दिला गये कि कितनी एहमियत रखता है रोटी कपड़ा और मकान।
यह सब देख मेरे मन में मानो अम्फान सा आया,
अपने विचारों को कागज़ पर उतरने से मैं रोक ना पाया।
सब कुछ होते हुये भी इतनी शिकायत करता जा रहा हूँ,
खुदा की इनायत आखिर मैं क्यूँ नही समझ पा रहा हूं।
कोरोना के इस काल में कोई हजारों मील चले जा रहा है,
सरकारी अव्यवस्था और हमारी असंवेदनशीलता के कारण जले जा रहा है।
पर हमे घर पर सुकून से बैठना भी लग रहा भारी है,
हम क्यूँ नही समझ रहे कि यह कोई छोटी मोटी बिमारी नही, महामारी है।
जीत तो जाएगा यह जंग भी देश मेरा,
अंधेरी रात भी बीतेगी, फिर से होगा नया सवेरा।
बस यह ही माँगना चाहूँगा भगवान से,
कि हमे बेहतर इन्सान बना कर ही बाहर निकालें इस जंजाल से।
स्वार्थ भाव मिट जाये ये हमारा,
किसी ज़रूरतमंद के काम आ पायें।
इंसानियत से बढ़ कर कोई धर्म ना हो हमारे लिये,
जिंदगी मे चाहे जहाँ भी जायें।।
- विदिशा चौधरी