आत्मनिर्भर भारत !
आत्मनिर्भर भारत ।
लाठी जो उठी कारतूस डेह गया था,
हिन्दुस्तान जब अहिंसा पर डटा था।
धोती पहने एक शक्स खड़ा था,
जब दांडी को वो चला था,
सिर परदेसियों का भी झुका था ।
बेड़ियों को जो तोड़ चुका था,
बिन हथियार जो आज़ाद हुआ था,
खून की खेती लेहरती है अब वहां,
मिट्टी का मुल्क जो सोना हुआ था ।
आज उन्हीं राहों पर आज एक मज़दूर खड़ा था,
नमक के संग रोटी खोज रहा था,
उसके कंधों पर बोझ बड़ा था,
खुली सड़क पर ज़िंदा जल रहा था।
घर का एक लौता बड़ा था,
अभी तो मां का ऑपरेशन,
पिता का इलाज बचा था,
नंगे पांव उसने भी एक सत्याग्रह करा था।
ज़ुल्म की धोती, ज़ख्मों का ताज उसका ज़ेवर था,
ऐसा राजा जो मेहनती पेशेवर था।
स्वराज की धुन में मगन था,
आत्मनिर्भर उसका तन मन था,
आंसूओं से उसका रुख़ सजा था,
जब बेटी के दुख में तड़प उठा था।
तभी बोल पड़े एक साहब, 'आदमी ये जल्दबाज़ बड़ा था '
बेघर करके उसे एक जश्न मना था,
गांव के दरवाज़े पर भी एक झुंड जुटा था।
जिस मिट्टी में पला बढ़ा था,
जिस शहर में पसीना बसा था,
बीच रास्ते हर वादा उसे छोड़ चला था ।
आखरी सांस ले रहा था,
फिर भी एक कदम ज़्यादा चला था,
आज़ाद मुल्क में क्रांति का जोश जगा था,
जब हर बेसहारा महात्मा बन रहा था,
बेरोज़गारी से भिड़ गया था।
आज एक गांधी का फिर कत्ल हुआ था,
और खबरें यही कहती हैं के,
“ सिपाही शहीद सिर्फ सरहद पर हुआ था
किसी ग़ैर के सीने में पत्थर जड़ा था। ”
©सुवेबा ज़हीन